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06 जनवरी  2009 

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भारत में दलितों के प्रति भेदभाव अभी भी जारी

06/01/2009

A Dalit woman protester argues with a police officer during a protest against desecration of a statue of a leader of low-caste people, in Mumbai (File)
A Dalit woman protester argues with a police officer during a protest against desecration of a statue of a leader of low-caste people, in Mumbai (File)
मानवाधिकार सक्रियवादियों का कहना है कि हालांकि दलितों के प्रति भेदभाव को ग़ैर क़ानूनी घोषित करने वाला विधेयक पारित हुए पचास वर्षों से भी अधिक समय हो गया है फिर भी देश का सदियों पुराना जातीय भेदभाव अभी भी जारी है । दलितों ने, जिन्हें पहले “अछूत” कहा जाता था, सबसे अधिक भेदभाव का सामना किया है । भारत के सबसे घनी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में दलितों की संख्या 21 प्रतिशत है । नीलांजना भौमिक ने उस राज्य के पश्चिमी भाग में अगफ़ुर गांव का दौरा किया । वहां के दलितों के बारे में उन्होंने यह रिपोर्ट भेजी हैः

पांच भारतीयों में से एक, लगभग सत्रह करोड़ लोग दलित हैं । यह वह दल है जो भारत की चार प्रमुख जातियों से बाहर है । हालांकि सन् 1955 में उनके प्रति भेदभाव को ग़ैर क़ानूनी बना दिया गया था, लेकिन मानवाधिकार सक्रियवादियों का कहना है कि यह क़ानून केवल नाम मात्र के लिए है ।

सक्रियवादियों का कहना है कि अक्सर दलितों पर जो हमले होते हैं, उनकी जानकारी उन अधिकारियों को रहती है जिन पर उनकी रक्षा का दायित्व है ।

हाल में किए गए एक सर्वेक्षण से संकेत मिले हैं कि 38 प्रतिशत सरकारी स्कूलों में खाने के समय दलित बच्चों को अलग बैठाया जाता है । बीस प्रतिशत स्कूलों में दलित बच्चे उस नल से पानी नहीं पी सकते जिससे बाक़ी बच्चे पीते हैं ।

38 वर्ष पहले चरण सिंह को इतना शर्मिन्दा किया गया कि उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा । चरण सिंह का कहना है कि किसी किसी गांव में सब्ज़ी बेचने वाले दलितों के हाथ से पैसे भी नहीं लेते । उनकी जगह कोई और उन्हें पैसे देता है, बाद में दलित उस व्यक्ति को पैसे दे देते हैं ।

कुछ अन्य गांवों में दलितों को नए कपड़े नहीं पहनने दिए जाते ।

एक अध्यापक, धर्म कबीर का कहना है कि जब वह विवाह करने जा रहे थे तो उनके गांव के ग़ैर दलितों ने उनकी बारात रोक दी । श्री कबीर ने कहा कि उनके परिवार वालों ने बहुत बड़ी बारात का आयोजन किया था । जैसे ही वह वधू के घर के लिए रवाना हुए, ऊंची जाति के कुछ ग्राम वासी वहां पहुंच गए और शिकायत करने लगे कि एक दलित की बारात इतनी धूमधाम से नहीं जानी चाहिए ।

चरण सिंह भारत के गांवों में जाकर लोगों को आश्वस्त करने का प्रयास करते हैं कि शिक्षा ही उनकी प्रगति का प्रमुख आधार है । कवि और गीतकार चरण सिंह, अपने गीत फ़िल्मी गीतों की तर्ज़ पर लिखते और गाते हैं जिससे अधिक से अधिक लोग अकर्षित हो सकें ।  

चार वर्ष पहले जब एक दलित, कुमारी मायावती राज्य की मुख्य मंत्री चुनी गई थीं, तो दलितों ने सोचा था कि उनकी हालत में कुछ सुधार होगा । लेकिन ग़ाज़ियाबाद में स्थानीय सामुदायिक बोर्ड में सेवारत चन्द्र पाल भारती का कहना है कि सत्ता में बने रहने और प्रधान मंत्री बनने की अपनी आकांक्षा पूरी करने के लिए मायावती की रुचि ऊंची जाति के ब्राह्मणों के वोटों में अधिक है । उनका कहना है कि हालांकि दलितों की हालत वैसी ही है जैसी मायावती के सत्ता में आने के पहले थी, फिर भी वह उन्हें समर्थन देंगे क्योंकि मायावती उन्हीं में से एक हैं ।

दलित सक्रियवादी तिलक का कहना है कि अब जबकि भारत चांद पर जाने की तैयारी कर रहा है, दलित अभी भी नालियां साफ़ कर रहे हैं । वह कहती हैं कि अगर वह कोई और काम करना भी चाहता है तो भी उसे नालियां साफ़ करने को मजबूर किया जाता है । तिलक का कहना है कि भारत को अपनी सूचना प्रोद्योगिकी स्रोतों का इस्तेमाल उन लोगों के लिए करना चाहिए जिन्हें उसकी सबसे अधिक आवश्यकता है । उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि उच्च टैक्नोलोजी का लाभ उन्हीं लोगों को मिल रहा है जिनका समाज में ऊंचा ओहदा है ।

अचानक ही उत्तर प्रदेश के दलितों पर राजनीतिज्ञों ने काफ़ी ध्यान देना शुरू कर दिया है । इस वर्ष बाद में होने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए कौग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ गठजोड़ और प्रमुख प्रतिपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी, दोनों ने, राज्य के दलितों की हालत जानने के लिए इस महीने समितियों और सुनवाइयों का आयोजन किया है । लेकिन बहुत से दलितों का कहना है कि इतिहास साक्षी है कि चुनाव होने के बाद उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता, इसलिए उन्हें इस बार भी कोई आशा नहीं है ।


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